Saturday, October 4, 2014

शकुन्तला महाकाव्य प्रथम समुल्लास वन्दना



 हे शब्द  ब्रह्म  विनती  तुमसे
नतमस्तक  होकर   करता  हूँ
स्वीकार करो  मम  वन्दन को
मैं  पाव   तिहारे   पड.ता  हूँ।।01।।
तुम जगती के हर कण-कण में
हे अज अविराम ध्वनित  होते
नित जन मानस के अधरों  से
बनकर   साकार  विदित  होते।।02।।
तुम  निराकारचिर  अविनाशी
प्रतिमूर्तिरूप   साकार    तुम्हीं
तुम ही शाश्वत  इस जगती में
सबके   हो   प्राणाधार  तुम्हीं।।03।।
सब  जीवों  में  सचराचर  के
वाणी  का  विस्थापन    होता
प्रकट  भावना  कर  देने  को
शब्दों  का  भी  थापन  होता।।04।।
तुमसे  सारे  जड.    चेतन  में
चैतन्य भाव  का  गुण  आता
मुक्तिकाल तक  कालचक्र  में
प्राणी   आकर   फँस   जाता।।05।।
सारा  जग  तेरे  ही  गुण  से
शब्दों  में   परिभाषित   होता
सत्, रज, तम  तीनों  रूपों  में
ज्ञानों   से   आभाषित  होता।।06।।
विनयी हो  तुम  दयावान  हो
तुम ही करुणा  के  सागर  हो
तुम  सबके  अन्तस्तल  वासी
तुम  ही  मेरे   नटनागर  हो।।07।।
सारी   दुनियाँ  में  तुमसे  ही
मृदु - भावों  की   धारा  बहती
भाषाओं   में   अनुकम्पा   से
साहित्यों   की   धारा   बहती।।08।।
कब से  अभिलाषा  जगी  मुझे
कविता  शाकुन्तल   लिखने   की
अतएव  स्वार्थ   ले  द्वार  खडा
पाकर  तव  कृपा   विरचने  की।।09।।
मैं  शरणागत   बन   आया  हूँ
अब मुझ  पर  दया-दृश्टि  कीजै
तुम  स्वामी  हो  मैं  सेवक  हूँ
मुझको  वरदान   अभय   दीजै।।10।।
इति. आदि. मध्य  इस कविता में
मुधको   तेरा   आलम्बन    है
कि़ञ्चित  मुझमें  सामर्थ्य  नहीं
हे   ईश   तेरा  अनुकम्पन  है।।11।।

http://shakuntlamahakavya.blogspot.com/2014/10/blog-post_3.html 



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