समीक्षित कृति- शकुन्तला
महाकाव्य समीक्षाक-सतीश
‘‘मधुप’’
ज्यों ही मुख से शकुन्तला शव्द का
उच्चारण होता है त्यों ही श्रोता की स्मृति के पन्ने पलटने शुरू हो जाते है और सदियों से चली आ रही
शकुन्तला की प्रेम कहानी स्मृति पटल पर हिलोरें मारने लगती हैं।
क्यों कि संस्कृत भाषा में महाकवि कालिदास पहले ही अभिज्ञान शाकुन्तलम् नामक नाटक
की रचना चुके हैं। उसी विषय पर श्री जयप्रकाश चतुर्वेदी जी ने हिन्दी भाषा
में अपने काव्य कौशल का प्रयोग करते हुये नये
तेवर में काव्य
सर्जना की है जिसका रोचक वर्णन अन्त तक पाठक को अपने साथ
बाँधे रखता है। रचनाकार ने
प्रत्येक समुल्लास में ऐसा दृश्यांकन किया है कि पाठक के सामने उस स्थान का विशेष
चित्र उत्पन्न हो जाता है।
प्रथम
समुल्लास में ईश वन्दना के साथ कण्व ऋषि के आश्रम का जो
चित्र खींचा है वह निःसन्देह मनोहारी है।
विभिन्न प्रकार के वृक्षों व पौधों का वर्णन करते हुये उनके औषधीय गुणों का जो
विवरण प्रस्तुत किया है हृदय स्पर्शी है यथा-
अतिशय पुनीत पूजनकारी
पीपल के पेड. सुहाते
थे
नित प्राणवायु अर्पण करते
पावन कर्तव्य निभाते
थे।
त्रयताप
नशावन वृक्ष वहाँ
सबको नित
पावन करते थे
क्षणभर
के अर्चन वन्दन से
दुख मन
के सारे
हरते थे।
आश्रम
के आसपास पशु पंक्षी तथा
पुष्पों का वर्णन
करते हुये जहाँ वातावरण को आनन्दमय बनाया है वहीं पाठक का ज्ञानवर्धन
भी किया
है पढ.ते पढ.ते पाठक एक स्थान पर आ खडा होता जैसे वह स्वयं ऋषि कण्व के
आश्रम में ही उपस्थित है और मन मोहक दृश्यों का आनन्द ले रहा है जैसे-
यह परिदृश्य देखकर राही
सम्मोहित हो रुक
जाता
घटनायें विसराकर
सारी
नृत्य देखकर
सुख पाता।
आश्रम
का मनोहारी चित्रण
करते हुये रचनाकार ने एक महत्वपूर्ण बात को
सफलता पूर्वक सिद्ध किया है कि
जहाँ इतना सुरम्य वातावरण होता है वहाँ
केवल प्रकृति की
ही कृपा नहीं होती वरन् साधकों की साधना का भी
योगदान होता है। यह
श्रेय महर्षि कण्व
को देकर उन्होंने मानव के यत्न को समुचित मान दिया है जिसके लिये ये
पंक्तियाँ समीचीन प्रतीत होती हैं-
कण्व ऋषि ने ही कुटिया को
धरती का
स्वर्ग बनाया था
जिसको अपने तपबल से ही
अति पावन भूमि बनाया था।
आश्रम की स्थिति व पात्र परिचय
रचनाकार सम्पूर्ण चेतना
का प्रयोग करते शकुन्तला के सौन्दर्य का मनभावन वर्णन किया है।
सद्गुणों के साथ-साथ उसके अद्वितीय सौन्दर्य वर्णन कल्पना
लोक में खडा कर देता है जिससे पाठक को उसके सौन्दर्य बोध
से सुखानुभूति होती है। ये पंक्तियाँ
बहुत प्रासंगिक-सी प्रतीत होती है-
आधुनिक विश्व सुन्दरियाँ भी
आगे नतमस्तक
हो जातीं
अपना स्वरूप गुण वैभव भी
आगे उसके
सब खो जातीं।
द्वितीय समुल्लास में राजा दुष्यन्त की वीरता तथा अराजेय ओज एवं
युद्ध कौशल का शानदार वर्णन करते हुए
शिकार किये जाने वाले जानवरों की चर्चा किया है जिसमें शाकाहार पर जोर देते हुए
मानवीय मान्यता को स्थापित किया है। सृजन धर्मी रचनाकार ने बहुत मनोयोग से
भाव व्यक्त किया है-
सबसे यही
निवेदन मेरा
आमिष भोजन त्याग
करो
शाकाहारी सब
बन जाओ
नित प्रभु का ही ध्यान धरो।
सारे
सन्त यही कहते हैं
शुद्ध अन्न जो खाते
है
अन्तर्मन
निर्मल हो जाता
सद्बुद्धी वे पाते
हैं।
राजा दुष्यन्त के आश्रम में शुभागमन पर
उनका स्वागत जबकि कण्व ऋषि आश्रम में उपस्थित नहीं हैं। उनकी अनुपस्थिति का कारण
यह कि सत्संग हेतु अन्यत्र गये हैं। यहाँ सत्संग की महत्ता का वर्णन
प्रशंसनीय है-
सत्संगति करने ऋषियों की
जिसकी महिमा
न्यारी है
क्षण में पाप नष्ट कर देती
सत्संगति अति
प्यारी है।
ज्ञान
जगा देती है उर में
मन के
भरम मिटा देती
दीप्तमान
कर देती सबको
परमानन्द करा देती।
आश्रम दर्शन में राजा दुष्यन्त का शकुन्तला से मिलन होता है तब उसके अद्वितीय
सौन्दर्य का वर्णन तथा राजा का मन्त्र
मुग्ध हो जाना, उस मनोदशा का बहुत सफलता पूर्वक चित्रांकन
किया है जिसे पढ.ते ही पाठक को वह भाव अपने-सा लगता है-
जैसे कदम बढे आगे को
देख अचम्भित हो
जाता
सखियों के संग जल देती
शकुन्तला में खो
जाता।
जैसे
स्वयं स्वर्ग की देवी
धरा लोक
पर आयी है
दरश कराकर मुझको अपना
पथ विचलित
करवायी है।
तृतीय समुल्लास में एक बात सबसे
महत्वपूर्ण है कि विरहग्रस्त
नायक की मनोदशा का वर्णन किया है। काव्य
जगत में विरही
नायक की अन्तर्दशा का विरहिणी नायिका की तुलना में कम
मिलता है। शकुन्तला के प्रति आशक्त होने के बाद दुष्यन्त के मनोभावों का वर्णन करने में रचनाकार को
प्रर्याप्त सफलता मिली है जो इन पंक्तियों
में परिलक्षित होती है-
सोता हूँ मैं पलंग पे
पर नींद नहीं आती
फूलों समान शैय्या
मुझको नहीं कराती।
लगता है कठिन
जीना
उसके बिना
हमारा
- बहती हो नाव जैसे
नाविक नहीं
सहारा।
चतुर्थ समुल्लास में शकुन्तला की
अकुलाहट का वर्णन चित्त की एकाग्रता
में अकुलाहट उत्पन्न
कर देता है। आश्रम से जाने के बाद
जब दुष्यन्त की याद सताती है तो उस समय
शकुन्तला की अन्तर्वेदना का वर्णन पाठक को उन्हीं हालातों में लाकर खडा कर देता
है। इन पंक्तियों में वह वेदना साक्षात दिखाई देती है-
उनसे लगन न लगती
ऐसी दशा
न होती
यादें नहीं
सतातीं
मैं नींद
भरके सोती।
उल्लेखनीय बात यह है कि जब दुष्यन्त पुनः आश्रम में आते
हैं तब शकुन्तला से मिलन
से उत्पन्न सुख का
वर्णन भी प्रशंसनीय है ये पंक्तियाँ उन भावों का साक्षात प्रमाण हैं-
भौंरा सुमन
बनें हैं
उपवन की जो कली थी
जैसे नदी
स्वयं ही
सागर में जा मिली थी।
पंचम समुल्लास में दुष्यन्त के
प्रस्थान के बाद शकुन्तला की विरह वेदना का वर्णन पाठक को य़थार्थ के धरातल
पर खडा कर देता है। यह भाव स्वतः उत्पन्न हो जाता है कि जब मन कहीं लगता न हो तो परमात्मा की
आराधना भाव पूर्वक नहीं हो पाती। शकुन्तला
के मुख से व्यक्त यह भाव इसी यथार्थ को रेखांकित करता है-
मैं सुबह-शाम
की पाठ पूजा
अर्चना वन्दना
भूल जाती
ध्यान कर जिससे जीवन सँवरता
इष्ट की
प्रार्थना भूल जाती।
आश्रम की निवासिनी शकुन्तला जब राजा
दुष्यन्त की सहधर्मिणी बन जाती है जिसके
बाद महर्षि कण्व के आने पर अपने बारे में सोचती है कण्व के बुलाने पर डरी हुई जाती
है फिर महर्षि जी समझाते हैं-
यदि मिले स्वर्ग की वस्तु सारी
जग में
कोई अपर चाहता है
मोक्ष के द्वार पर कोई पहुँचे
फिर कहाँ लौटना
चाहता है।
षष्ठ समुल्लास में शकुन्तला की विदाई का
वर्णन बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया
है बेटी की विदाई के समय हर आँख नम होती है।वह वियोग प्रकृति के माध्यम से
व्यक्त किया जाना रोचकता उत्पन्न कर देता है-
सभी चिडियाँ छोड. दाना
चहकना छोड.
देतीं हैं
सभी कलियाँ खिली रहतीं
महकना छोड.
देती हैं।
कली भी झुक
गयी दुख से
उसे खिलना
नहीं आता
युगल सब
दूर होते हैं
उन्हें मिलना
नहीं आता।
अपनों से विछुडते समय शकुन्तला की मनोदशा का वर्णन पढ.कर ऐसा प्रतीत होता है
मानों यह अकेली शकुन्तला की पीडा नहीं वरन हर युवती की पीडा है जो अपनों से अलग
होते समय सहन करती है उसका वर्णन करते
हुए रचनाकार ने एक शब्द
चित्र खींचा है-
शकुन्तल मिल रही सबसे
गले सबको
लगाती है
आँख से अश्रु की
धारा
हृदय तक छलछलाती है।
सप्तम समुल्लास में शकुन्तला के
हस्तिनापुर आगमन की चर्चा जहाँ शकुन्तला के सामने उत्पन्न संकट
का वर्णन है
वहीं हस्तिनापुर सिंहासन व राजमहल
का वर्णन भी पाठक के मन को आकर्षित करता है-
नीलम पुष्पराज मणियों के
खम्भे खूब
सुहाते
बने चित्र दीवारों पर भी
मन को
खूब लुभाते।
राज
सिंहासन भी सोने
का
मणियाँ जडी
हुई थीं
चमक नहीं
जिसकी कम होती
लडियाँ लगी
हुई थीं।
शकुन्तला को अब तक हुई
रचनाओं में अधिकांश रचनाओं में शकुन्तला एक मौन नायिका है
जो अपनी पीडा को अन्तस
में महसूस तो करती है परन्तु
व्यक्त नहीं कर पाती। अंगूठी खो जाने के बाद वह सभा से चली जाती है यदि वह
चाहती तो प्रमाम स्वरूप आश्रम के लोगों को
एकत्रित कर अपना
पक्ष रखती किन्तु सब कुछ मौन रहकर सहने वाली नायिका का नाम ही शकुन्तला है
उसका वर्णन-
शकुन्तला चुपचाप खडी थी
भरी सभा
में सारी
अपनी बात कहे वह
कैसे
पडी सोच
में भारी।
अष्टम समुल्लास में हस्तिनापुर से आहत
भाव से लौटी शकुन्तला में उत्पन्न उन
भावनों का वर्णन है जिसमें माँ से सन्तान का लगाव व्यक्त होता है जहाँ एक
तरफ वह इन भावों में खो जाती है कि यदि
उसकी माँ का प्यार मिलता तो धन्य हो जाती
रचनाकार ने बचपन के भावों को रोचक ढंग से व्यक्त किया है-
माता नित नई कहानी
किस्से मुझे
सुनाती
झूले में
बैठा करके
झूला मुझे
झुलाती।
माँ हाथ पकडकर मेरा
मेला सकल
घुमाती
कहती जो खेल खिलौने
माता मुझको
दिलवाती।
सन्तान प्राप्ति का सुख अवर्णनीय होता है
पति ने स्वीकार नहीं किया, ऋषि आश्रम में जाने का मन नहीं हुआ उससे उत्पन्न विषाद सवतः कम हो जाता है। इसी अनुभूति
का वर्णन मन मोह लेता है-
पायी अधरों पर खुशियाँ
जब
से सन्तान मिली
छट गया तमस का पर्दा
कलियाँ तब
से खिलीं।
बालक के सुख में
बिसरी
शकुन्तला दुख
अपना
बालक की खुशियों
में ही
दिखता है
सुख अपना।
नवम समुल्लास यह सिद्ध करता है कि सच्चे
प्रेम का महत्व ही अलग होता है। एक मौन साधिका की सच्ची लगन को
दुनियाँ ने भले ठुकरा दिया किन्तु परमात्मा ने कदम-कदम पर उसकी सहायता की तथा उसका
प्रिय उसे प्राप्त हुआ तो आँसू निकल पडे-
झर रही नेत्र से मोतियों की लडी
दोनो प्रेमी खडे के खडे रह गये
बात आँखों ही आँखों में होती रही
होंठ कँपते खुले के खुले रह गये।
मीन को जल मिला
प्राण सको तन मिला
जिन्दगी के
लिये प्राणवायु मिली
मिल गया
साथ शकुन्तला का उसे
निकलते प्राण
को जैसे वायु
मिली।
उपरोक्त महाकाव्य में रचनाकार ने यह
सन्देश दिया है कि प्रेम का पन्थ बहुत
कटिन होता है तथा सच्चे प्रेम को मंजिल अवश्य मिलती है अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु अनवरत साधना करनी चाहिए ऐसे
साधकों पर ही परमात्मा की कृपा बरसती है। सरल और सर्वग्राम्य भाषा का प्रयोग करते
हुए रचनाकार ने पुस्तक को इस स्थिति में लाकर खडाकर दिया है कम
शिक्षित लोग भी काब्य रस का आनन्द ले
सकें। आशा है कि यह प्रेरक महाकाब्य संघर्षरत लोगों
के लिए प्रेरणा स्रोत बनकर लोक
मंगल के लिए हितकारी सिद्ध होगा।
रचनाकार-जयप्रकाश चतुर्वेदी सतीश ‘‘मधुप’’
ग्रा0-चौबेपुर,पो0-खपराडीह सहायक अध्यापक
जि0-फैजाबाद, उ0प्र0 जैन इण्टर कालेज करहल मैनपुरी
पिन-224205
निवास-ग्रा0-पो0-घिरोर,जिला-मैनपुरी
मो0-09936955846
उत्तरप्रदेश,पिन-205121
मूल्यमात्र-100रुपये,पृष्ठ-153
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