फैजाबाद के चर्चित युवा कवि श्री जयप्रकाश
चतुर्वेदी द्वारा विरचित शकुन्तला महाकाव्य निःसन्देह एक शाश्वत प्रेमगाथा है जो
कि आधुनिक परिवेशों में प्रेम को निष्कलुष बनाता एवं निस्पृह बनाने में की प्रेरणा
देता है।
यह महाकाव्य नौसमुल्लासों में विभक्त है।
महाकवि कालिदास कृत नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम् के परिदृश्य को हिन्दी काव्य छन्दों
में अपनी शैली में प्रकट करना ही कवि चतुर्वेदी जी की अपनी मौलिकता है। अनेक
कवियों ने शकुन्तला आधृत काव्य की रचना की है। इसके बावजूद भी प्रस्तुत कृति का
अपना महत्व है। क्यों कि ढाई आखर प्रेम का ऐसा शब्द है जो निरन्तर समाज को जोडने
की सीख देता है और रागात्मक चेतना का संचार करता है। प्रेम की
पवित्रता,निस्पृहता,त्याग,समर्पण ही वन्दनीय होता है। प्रेम में
छल,कपट,धूर्तता,स्वार्थपरता आदि की कोई जगह नहीं होती है।
वर्तमान संदर्भ में नारी विमर्श और नारी
अस्तित्व को बार-बार मुद्दा बनाया जा रहा है।प्रेम वासना का शिकार हो रहा है।
प्रेम के प्रपंच में शोषण.बलात्कार जैसे अपराध तेजी से बढ रहे हैं ऐसे में कवि ने
समाज सके सामने प्रेम का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत कर दुष्यन्त और शकुन्तला की
पवित्र प्रेमगाथा को जिस मनोहारी ढंग से वर्णित किया है, वह प्रशंसनीय है।
शकुन्तला की विदाई का एक प्रसंग देखिए-
पेड पौधे लताएँ स भी, श्वसन निज छोढ देती हैं
पात भी पड गये पीले, डालियाँ मोड लेती हैं
कली भी झुक गयी दुख से, उसे खिलना नहीं
आता
युगल सब दूर होते हैं, उन्हें मिलना
नहीं आता
शकुन्तला महाकाव्य में रिश्ते-नातों सहित
कर्तव्य भाव को आधुनिक परिवेश में उठाने का प्रशंसनीय किया गया है जो प्रायः लुप्त
होते जा रहे हैं।इस अर्थ में कृति सर्वथा प्रासंगिक एवं पठनीय है। इसमें महाकाव्य
के सारे लक्षण विद्यमान हैं। पुस्तक की छपाई-सफाई सुन्दर है।
हिन्दी जगत में कवि की इस प्रथम सशक्त कृति
को भरपूर स्नेह-सम्मान प्राप्त हो हमारी हार्दिक शुभकामनाएँ हैं।
समीक्षक-श्री सुरेन्द्र वाजपेयी रचनाकार-जयप्रकाश चतुर्वेदी
वाराणसी
प्रकाशित-हिन्दी प्रचारक पत्रिका वाराणसी
रचनाकार-जयप्रकाश चतुर्वेदी
वाराणसी
प्रकाशित-हिन्दी प्रचारक पत्रिका वाराणसी
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